मकड़ा
कहानी
चित्रांकन : संदीप जोशी
सैली बलजीत
उसकी शक्ल ही से उसे घिन होने लगती है। शुरू से उसके जिस्म से घिन रही है। जब वह उसे छूता है तो उसके दिल में आता है, सब छोड़कर कहीं दूर निकल भागे लेकिन पांवों में जैसे बहुत बड़ी जंजीर बंधी है, पंखों को जाने कौन कुतर गया है। अब तो इसी तंग-से पिंजरे में पड़ी है। वह आज उसका पति है। ठोसा हुआ पति। बहुत रोयी थी उस दिन। बहुत भागी थी। बहुत छटपटाई थी, लेकिन उसके चारों ओर खूंखार भेडिय़ानुमा आदमियों का काफिला खड़ा था। कहां तक भाग पाती? जब होश आया था तो पंखों को लहूलुहान देख चिल्ला उठी थी। दरअसल उसने कभी उसे इस निगाह से देखा ही नहीं था। कितना छोटा था वह तब। दसवीं में तो पढ़ता था। सारा दिन उसकी नाक पर मक्खियां भिनभिनाती रहतीं। ढीले-से लिबास में वह सारा दिन घर की छत पर पतंगें उड़ाते हुए निकाल देता। दसवीं के बाद उसकी पढ़ाई छूट गई थी।
उसके सपनों में कभी उसका अक्स तक नहीं दिखा था। अब वह दुनिया की नज़रों में उसका पति है। जाने कैसे झेल गई उसे। कल का दुधमुंहा बिगड़ैल किस्म का लड़का जो मेरे पति का छोटा भाई था, आज उसका पति हो गया है।
उसकी शादी लगता है, एक सपना-सा हो गई थी।
शादी के पांच साल बाद ही, जब उसके पति की एक सड़क दुर्घटना में मौत हुई थी तो वह पत्थर-सी हो गई थी। चूडिय़ां फोड़ ली थीं। सिंदूर पोंछ दिया था। मांग सूनी हो गई थी। माथे पर लगी चौड़ी बिंदिया आग का दहकता लावा हो गई थी। सब कुछ लुट गया था। वह मुंह फैलाए ताकती रह गई थी। इन पांच सालों में उसके आंगन में खेलने एक बच्चा आ गया था। वह मां भी हो गई थी। लेकिन…लगा था, आकाश से धड़ाम से ज़मीन पर आ गिरी थी वह। सब कुछ कांच की तरह टूट कर बिखर गया… टूटे कांच की किरचों को बीनने के लिए उठे हाथ लहूलुहान हो गए थे।
‘देख कुडि़ए, जाने वाला तो चला गया, उसके साथ तो मरा नहीं जाता। बोल?’ उसकी सास ने कहा था एक दिन।
‘चुप रहिए, क्यों जख्मों को कुरेदती हैं…’ वह सिसक उठी थी।
‘बोल, इतनी लंबी पहाड़-सी ज़िंदगी अकेली काट सकेगी? कहां ठोकरें खाती फिरेगी इस बच्चे को लेकर?’ उसकी सास की आंखों में जाने क्या था।
‘जो किस्मत में होगा… अब तो किस्मत पर ही भरोसा है।’
‘कुडि़ए, मैं चाहती हूं तू यहीं रह जा, इस घर की इज्जत इसी में है।’
‘यहीं तो रहूंगी मां जी, कहां जाऊंगी…’ वह फूट पड़ी थी।
‘ऐसे मुफ्त में रोटियां तो नहीं तोडऩे दूंगी।’
‘कहां जाऊंगी…कहीं नुक्कड़ में पड़ी रहूंगी।’
‘देख री… एक बात तुझे माननी पड़ेगी… तू यहां रहेगी तो कुक्कू की ब्याहता बनकर… समझी…’ सास ने अपना घिनौना फैसला सुना दिया था।
‘खुदा के लिए चुप हो जाइए…आपने इतना कहने की हिम्मत कैसे की…ऐसा हो सकता है भला? खुदा से डरिए…।’
‘आंखें निकालती है? तेरी मजाल क्या कि मेरे आगे बोले? देखती हूं तू कहां तक भागती है… सीधी तरह मान जाएगी तो ठीक, वरना…।’
‘क्या कर लेंगी, शर्म करें कुछ… अभी उनकी चिता भी ठंडी नहीं हुई और आप यह क्या सोच रही हैं।’
‘सोच नहीं रही, कलमुंही…करके दिखाऊंगी…तेरी जवानी पर तरस आता है मरजानी…।’
‘मत करिए तरस मुझ पर…लेकिन अपनी गंदी जुबान से कुक्कू को मेरे साथ न जोड़ें।’
‘क्या कमी है कुक्कू में… बोल, खाते-पीते घर से है, अब तो दुकान भी चल निकली है उसकी। उसका घर बस जाएगा तो बोल तेरा क्या जाएगा।’
‘भाड़ में जाए कुक्कू…चाहे जहां मरे-खपे मुझे क्या?’
‘तुझे बताती हूं माटी मिली, तेरा खसम है वह।’
‘मेरा खसम तो…।’
‘मर गया तेरा खसम… उसके साथ क्यों न मर गई? जुबान कैसे चलाती है, लोग क्या कहेंगे।’
‘थू-थू करेंगे तुम पर… लानतें भेजेंगे।’ मैं चिल्ला उठी थी। घर के दूसरे लोग भी आ गए थे वहां।
एक वज्रपात हुआ था उस दिन। मैं बेहोश हो गई थी।
लेकिन किसी भी सूरत में कुक्कू को पति मानना गवारा नहीं कर पाई थी। उस दिन के बाद घरवालों ने मुझे तंग करने की सीमाएं तोड़ दी थीं। मैं रो-रोकर बेहाल हो चली थी। उससे मारना-पीटना तो अकसर होने लगा था। उसके सब्र का बांध टूट गया था। उसके मां-बाप को इसकी खबर हुई तो वे भी आ गए थे। उसके रिसते हुए जख्मों पर फाहे लगाने की बजाय वे भी उसी काफिले में सम्मिलित हो गए थे। वह कुछ न कर पाई थी। उसे लगा था, वह एक खूंटे से बंधी हुई निरीह गाय-भैंस हो गई है, जिसका दिल चाहा जब भी एक खूंटे से खोलकर दूसरे खूंटे से बांध दिया।
मां का भी वही फैसला था, ‘देख बेटी, जो तेरे घरवाले कहते हैं, वही कर।’
‘तुम भी उसी तरह की बातें करने लगी मां।’ वह जड़ हो गई थी।
‘क्या करूं, लड़कियां ससुराल ही में अच्छी लगती हैं। रहना तो तुम्हें यहीं है न, फिर पहाड़-सी जिंदगी भला कटती है?’
‘मां, कहां जाऊं मैं? किसे सुनाऊं दिल की बात? सभी मुझे बोझ समझते हैं, तुम भी…बापू भी…सभी…।’
‘क्या $फर्क पड़ता है, कुक्कू में बुराई भी क्या है। देख बेटी सारी जिंदगी धक्के खाती फिरेगी, कोई नहीं पूछता बिन मर्द की औरत को…। कुक्कू तुम्हें सहारा देगा… क्या चाहती है बोल…। मेरा क्या है, जाओ धक्के खाती फिरो…’ मां ने ढेर सारा पाठ बांच दिया था।
‘मैं जी लूंगी, जैसे होगा…कहीं नौकरी कर लूंगी… लेकिन इस चारदीवारी में तिल-तिल नहीं मरूंगी…।’
वह तिलमिला उठी थी।
‘तेरी भलाई के लिए कहती हूं, जाने क्या हो गया है तेरी अक्ल को? जानबूझ कर कुएं में गिरना चाहती है तो गिर, मर…।’
वह बिफर पड़ी थी, ‘मुझे कुएं में गिरना है तो गिर कर रहूंगी, जो किस्मत में होगा, मिल जाएगा।’
‘चार साल के बाद देखना कौन पूछता है तुझे… तेरी शक्ल नहीं देखेगा कोई।’ मां भी अड़ गई थी।
कई दिनों तक मां के शब्द उसके भीतर हथौड़ों की तरह लगते रहे थे। लगा था, इस षड्यंत्र में सभी सम्मिलित थे। उसके पति का छोटा भाई उसका पति बनता, दिल ने कभी गवारा नहीं किया था। कैसे उसकी लार टपकाती आंखों को झेलने के बारे में सोचती। उसकी सांसों में शराब की दमघोंटू तीखी गंध के भभकों को अपनी सांसों में कैसे सम्मिलित कर पाती। सबसे बढ़कर उसे उस बिंदु से देखने का साहस नहीं था उसके पास। उससे तो उसे शुरू ही से घिन रही है। किटकिटाते हुए गंदे-पीले पड़ गए दांतों में तो वह राक्षस-सा लगता था उसे। बेडौल जिस्म, नाक पर भिनभिनाती मक्खियों वाला भद्दा चेहरा, वह कैसे झेल पाती? सबसे बढ़कर उसके भीतर जो मरा हुआ अहसास था, उसे जीवित कर पाने की कल्पना भी कैसे कर पाती? लेकिन… उस पर उसके थोपे जाने का घिनौना फैसला कोई भी बदलने को तैयार नहीं था। सभी अपनी-अपनी दुनियावी पोथियों से रटे-रटाए शब्दों का बखान करते हुए आगे सरकते गए थे। इतने सारे शब्दों का वध करना उसके लिए दुश्वार था। उसने महसूस किया था, हर एक ने अपने-अपने हिस्से की कालिख उसके चेहरे पर पोतने की घिनौनी हरकत की है। उसने महसूस किया था, जैसे उसके पंखों को कोई कुतरने पर उतारू है। उसके चारों ओर सलाखों वाला मजबूत पिंजरा उसारने में वे लोग कोई कमी नहीं रहने देंगे।
अगले महीने में, उसके साथ और तेजी के साथ घिनौना व्यवहार होने लगा था। उसके पति का दुधमुंहा भाई अब जबरदस्ती उसके कमरे में घुसने का दुस्साहस करने लगा था। वह छटपटाती, रोती, चीखती, कसमसाती, लेकिन उसका चीत्कार अंधी गुफा से टकराकर वापस लौट आता। निरीह हो गई थी वह। उसे लगा था, अब वह उड़ नहीं पाएगी।
उसने एक दिन तो तय कर लिया था कि वह अब यहां एक क्षण के लिए भी नहीं रहेगी। अपने बच्चे को लेकर, कहीं भी चली जाएगी। इसके लिए वह कई तरकीबें बनाने लगी थी। मां के घर के बाहर बहुत बड़ा ताला लटका हुआ प्रतीत हुआ था। वहां जाना उसके लिए अब अभिशाप था। उसने महसूस किया था कि दूसरे लोगों की तरह, मां ने भी हाथों में कैंची पकड़ी हुई है, उसके पंख कुतरने को।
उसके पंख कुतर दिए गए थे।
वह राक्षस एक दिन फिर जबरदस्ती उसके कमरे में आ घुसा था। वह कल का ‘भाभी-भाभी’ कहकर गला फाडऩे वाला गंदे कपड़ों वाला लड़का उसका पति हो गया था। उसके जिस्म से कई दिनों तक उसकी सांसों की बदबूदार गंध चिपकी रही थी। उसे लगा था कि एक मकड़ा उसकी टांगों से सरसराता हुआ उसके जिस्म पर कसकर चिपक गया है। उसने उस मकड़े की जकडऩ अपने शरीर के हर ओर रेंगती हुई पाई थी। कई दिनों तक उसने उस मकड़े को अपने शरीर से उतार फेंकना चाहा था लेकिन वह मकड़ा इतना कसकर चिपका हुआ था कि उसकी समस्त शक्ति भी पस्त हो गई थी। उसके पूरे जिस्म पर मकड़े की छोड़ी हुई लार रिसरिसाने लगी थी…।
किसके आगे चिल्लाती…सभी तो उसे पिंजरे में कैद करने के लिए तत्पर थे।
‘बोल, अब क्या सोचा है?’ मकड़े की तरह चिपकने वाला कुक्कू उसके सामने खड़ा था।
‘कुछ नहीं…दफा हो जा मेरी आंखों से…तूने सोच कैसे लिया कमीने, बोल?’ वह बिजली की तरह कौंधी थी।
‘अब क्यों नखरे करती है, मान ले मुझे अपना पति… नहीं तो मनवाना आता है। बोल, तू अब भी मेरी पत्नी नहीं? सभी तो जानते हैं कि तू अब मेरी है…’ वह ठठाकर हंसा था।
‘दिल इसे कभी नहीं स्वीकारेगा…’ वह ढीली हो गई थी।
उस पर बेहोशी आ गई थी।
बेहोशी बहुत लंबी हो गई थी, कितने बरस लंबी। उसी बेहोशी की हालत में कुक्कू और उसके ब्याह की साज़िश रच डाली गई। वह उस घिनौने शख्स की ब्याहता कहलाने लगी। मन के भीतर से अब इस साजिश को अस्वीकारने की शक्ति नहीं है। अब तो वह मकड़ा, एक अधिकार के साथ उसके अंग-संग चिपकने के लिए हाथ बढ़ाता है। वह उसे रोक नहीं पाती, भीतर ही भीतर चिढ़ती है बस। उसे एक क्षण के लिए लगता है जैसे वह भद्दी शक्ल वाला लड़का, ‘भाभी-भाभी’ कहता रसोई में घुस आया है, आते ही धमा-चौकड़ी मचा दी है उसने… और वह उसे अपने हाथों से खाना खिला रही है… वह लड़का एकाएक रेंगने वाले मकड़े में तबदील हो गया है, लार टपकाता हुआ मकड़ा…जो क्षण ही में अपनी गंदलाई हुई लार से उसके जिस्म को गंदा कर देगा। वह लाख उतारना चाहती है उस मकड़े को…लेकिन उसके हाथों में तो बेडिय़ां हैं… पंख कुतरे हुए भी तो कई साल हो गए हैं… मकड़ा रेंग रहा है…उसे रेंगना है….।